प्रशिक्षण से परिवर्तित शिक्षिका

-अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय द्वारा | 21 अगस्त 2020

क्या कुछ व्यक्ति शिक्षक बनने के लिए पैदा हुए हैं और क्या केवल वे ही वास्तव में सक्षम हो सकते हैं? या ऐसी आकांक्षाओं के बिना भी लोग महान शिक्षकबन सकते हैं? क्या कुछ शर्तें हैं, जो इस तरह के विकास को बढ़ावा देती है? क्या ये स्थितियाँ आंतरिक (व्यक्तित्व, स्वभाव) या बाहरी (समर्थन, अवसर) हैं? ये कुछ सवाल हैं जो रायपुर के एक ग्रामीण कस्बे धारसीवा के एक विद्यालय में एक सादे-सरल शिक्षिका के साथ बातचीत के दौरान सामने आए।

विद्यालय

पीएस रामसागरपारा मुख्य सड़क से दूर एक छोटी-सी इमारत में स्थित है। इसमें चार कक्षाएँ और शिक्षकों के लिए एक छोटा कमरा है। विद्यालय में लड़के-लड़कियों की लगभग समान संख्या के 99 बच्चे हैं। औसतन 70-75 बच्चे प्रतिदिन विद्यालय जाते हैं। अधिकांश बच्चे मजदूर परिवारों से आते हैं, जिसका अर्थ है कि उनके माता-पिता लंबे समय तक काम करते हैं और बच्चे कई घंटे बिना निगरानी में बिताते हैं, जो किशोरों में अधूरा गृहकार्य और शराब के सेवन का एक प्रमुख कारण है। विद्यालय में भेदभाव कोई चिंता की बात नहीं है, छात्र ज्यादातर सभी के साथ घुलमिल जाते हैं। अधिकांश माता-पिता दैनिक वेतन भोगी कर्मचारी होने और/या उनके पास अपने बच्चे की शिक्षा से जुड़ने होने के लिए समय और ऊर्जा नहीं होने के कारण अभिभावक-शिक्षक बैठकों (पीटीएम) में औसत उपस्थिति 30-35 रहती है।

बच्चे कक्षाओं के बीच लंबे गलियारे में अपना मध्याह्न भोजन खाते हैं। विद्यालय में जगह की बहुत कमी है। खेलने या हलचल करने वाली गतिविधियों के लिए कोई जगह नहीं है।

शिक्षिका की व्यक्तिगत यात्रा

सुश्री गायत्री एक ऐसे साधारण परिवार से आती हैं, जहाँ दैनिक जरूरतों को पूरा करना एक संघर्ष था। 5 बहनों और 3 भाइयों में से एक होने के कारण, उन्हें कम उम्र में ही परिवार की आर्थिक तंगी के कारण शिक्षा छोड़ कर काम करना शुरू करना पड़ा। कुछ वर्षों के बाद, वह वापस विद्यालय गई और अपनी विद्यालयीन शिक्षा पूरी की। वे शिक्षक बनने की इच्छा नहीं रखती थी। परंतु विद्यालयीन शिक्षा के बाद, उनके पिता ने उनके लिए शिक्षिका की एक नौकरी ढूंढी और वह केवल परिवार की वित्तीय जरूरतों के कारण यह नौकरी करने लगी।

गायत्री अध्यापन को केवल अपना काम मानती थीं और बिना अधिक विचार के प्रतिदिन काम पर जाती थीं। 2010 में  उन्होंने शिक्षकों की कमी के कारण पहली से तीसरी कक्षा तक पढ़ाया। वह कहती हैं कि उन्हें एक साथ तीन वर्गों को पढ़ाना कठिन लगता था और अक्सर ऐसा करने के लिए खुद को अक्षम पाती थीं। उन्होंने बहु-स्तरीय अध्यापन (teaching multi-level) और अपनी स्वयं की अक्षमता, दोनों के कारण रटने-सिखाने (rote teaching-learning) का सहारा लिया।

2017 में, अजीम प्रेमजी फाउंडेशन (APF) ने उनके समक्ष अंग्रेजी दक्षता पाठ्यक्रम (English proficiency course) का प्रस्ताव रखा। वह हमेशा अंग्रेजी में धाराप्रवाह बोलने का शौक रखती थी और उन्होंने इस में भाग लेने का फैसला लिया। इसके बाद शिक्षण विधियों (teaching methods) और शिक्षाशास्त्र (pedagogy) पर कार्यशालाएँ (workshops) हुईं, जिससे काम को देखने के उनके सोच में बदलाव की शुरुआत हुई। अपनी दुनिया में, उन्होंने कभी नहीं सोचा होगा कि पढ़ाने के और भी मार्ग हैं। परंतु कार्यशालाओं ने उन्हें पूरी तरह से मोहित कर लिया। उन्होंने बदलने के वे मार्ग देखें जिन्हें वह नहीं जानती थी कि अस्तित्व में है।

कार्यशाला के अनुभव बताते हुए, सुश्री गायत्री प्रसन्न दिखीं। उन्होंने बताया कि प्रशिक्षक (facilitator) के धैर्य और शांति से वह कितनी विस्मित थी। इसने उनमें आत्मबोध की प्रक्रिया शुरू की। जब भी वह छात्रों के साथ अपना आपा खोती थी, तो वह सोचती थी कि ‘इस स्थिति में कार्यशाला के प्रशिक्षक क्या करेंगे’? उन्होंने एक विमर्शपूर्ण दैनिकी (reflective diary) भी रखनी शुरू की जिससे उन्हें आत्मबोध और परिवर्तन की इस प्रक्रिया में मदद मिली।

यह उनके व्यवहार में प्रतिबिंबित हुआ। उनके प्रशिक्षण से मुख्य सीख (central learning) यह थी कि बच्चे स्वयं सीख सकते हैं और खोज तथा प्रयोग का आनंद ले सकते हैं। उदाहरण के लिए, वह शब्द जाल (word web) का उपयोग करने लगी; बच्चों को एबीसी रटवाने की जगह शब्दों से अक्षर की ओर बढ़ी, उन्होंने टीएलएम (TLMs) और कहानियों का अधिक उपयोग करना शुरू कर दिया। उन्होंने बच्चों के लिए खाली समय में देखने के लिए किताबें, चार्ट पेपर, मॉडल और सीखने की सामग्री (learning material) छोड़ने के महत्व को समझा।

अपनाया गया शिक्षाशास्त्र (Pedagogy)

अध्ययन समूह (Study groups):

बच्चों के लिए गृहकार्य खत्म करना बारम्बार चुनौती थी, क्योंकि उनके पास उनके काम में मदद करने के लिए घर पर कोई नहीं था। सुश्री गायत्री ने अपनी कक्षा में बच्चों के पतों का ब्यौरा तैयार किया और उन्हें निकटता के आधार पर 3-4 बच्चों के समूहों में बांटा। ये समूह एक समय तय कर, गृहकार्य खत्म करने के लिए एक साथ बैठते थे। सहकर्मी सहायता (peer support) के इस रूप ने उल्लेखनीय काम किया। हालांकि यह अभी भी 100% नहीं है, अपना गृहकार्य पूर्ण करने वाले छात्रों की संख्या बढ़ गयी हैं। सुश्री गायत्री ने कहा कि इससे बच्चों के आत्म-सम्मान और आत्मविश्वास को बढ़ाने में भी मदद मिली है।

टीएलएम:

हर महीने सुश्री गायत्री एक ऐसा कोना बनाती हैं जहाँ उस महीने की शिक्षा से संबंधित चित्र कार्ड, मॉडल और शब्द रखे जाते हैं। इसका उद्देश्य बच्चों को सामग्री (material) प्रदान करना है ताकि वे अपने समयानुसार खोज कर सकें और सीख सकें। अवलोकन के दौरान, बच्चों को उन शब्दों को पढ़ने और उन चीजों के बारे में बातचीत करने की कोशिश करते पाया गया जो उन्होंने कभी नहीं देखा था, उदाहरण के लिए, विदेशी फल और सब्जियाँ।

कथा मंडल (Story circles):

भाषा के विकास को बढ़ावा देने के लिए, कक्षा 1 और 2 के लिए, सुश्री गायत्री कथा मंडलियों का संचालन करती हैं, जिसमें बच्चे या तो चित्र बनाते हैं और फिर अपने चित्र के बारे में बात करते हैं या अपने घर/दिन की कोई कथा सुनाते हैं या सुश्री गायत्री चित्र/शब्द कार्ड (picture/word card) के साथ एक कहानी सुनाती हैं।

बच्चों के बारे में धारणाएँ: सुश्री गायत्री ने अपने शिक्षण के संबंध में जो सबसे बड़ा बदलाव महसूस किया, उनमें से एक बच्चे कैसे सीखते हैं और वे क्या कर सकते हैं इस बाबत उनका दृष्टिकोण था। यह जानने के बाद कि बच्चे अपने आप सीख सकते हैं, टीएलएम का उपयोग करने और खोज के लिए सामग्री छोड़ने का उद्देश्य उन्हें समझ में आने लगा। उन्होंने इस ज्ञान का उपयोग बच्चों की स्वाभाविक जिज्ञासा को जानने के लिए भी किया। यह साधन (tool) बच्चों का ध्यान आकर्षित करने के लिए बहुत उपयोगी साबित हुआ। छात्रों के साथ उनका पारस्परिक व्यवहार सजा और डांट का उपयोग करने से हटकर उनके साथ बातचीत करने में बदल गया। बदलाव धीरे-धीरे हुआ और अक्सर सीधा नहीं था। परंतु वह इस प्रक्रिया के लिए आभारी है। इस बदलाव पर बच्चों की प्रतिक्रिया इतनी महत्वपूर्ण रही है कि विद्यालय के अन्य शिक्षकों और अन्य विद्यालयों के कुछ शिक्षकों ने भी इसी तरह का व्यवहार अपनाने की इच्छा व्यक्त की है।

शिक्षक-शिक्षार्थी संबंध (teacher-learner relationship):

उनकी कक्षा के अवलोकन के दौरान, बच्चों के प्रति उसकी संवेदनशीलता स्पष्ट थी। वह उनके साथ गहराई से जुड़ी और उन्हें अपने संदेह व्यक्त करने और जो पढ़ाया जा रहा था उससे परे प्रश्न पूछने के लिए जगह दी। कक्षा की भागीदारी महत्वपूर्ण थी और उन्होंने कुछ क्षणों के लिए बच्चों का ध्यान हटकर वापस कक्षा में आने दिया।

आकलन (assessment):

अपने सीखने से वह यह समझी कि बच्चों में कैसे और क्या परीक्षण किया जाए। वह आकलन को शिक्षाशास्त्र का हिस्सा मानती है और अब एक हद तक निरंतर आकलन करने में सक्षम है। वह प्राप्त परिणामों के अनुसार अपने शिक्षण विधियों (teaching method) को भी सक्रिय रूप से बदलती है। उदाहरण के लिए, पढ़ने के आकलन के लिए उन्होंने फलक पर कुछ मजेदार निर्देश लिखे। बच्चों को निर्देश पढ़ने और क्रिया करने की आवश्यकता थी। यह बच्चों के लिए मज़ेदार होने के साथ-साथ पढ़ने और बोधगम्यता क्षमता दोनों का परीक्षण करता है।

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